नागपुर। नागपुर में जन्मी भारत की पहली 'हार्लेक्विन बेबी' की 48 घंटे बाद ही मौत हो गई। डॉक्टरों ने इसे बचाने की पूरी कोशिश की लेकिन वो सफल नहीं हो पाये। शनिवार को महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में अमरावती की रहने वाली 23 साल महिला ने देश की पहली और दुनिया की तीसरी 'हार्लेक्विन बेबी' को जन्म दिया था।
जिसकी सोमवार को लता मंगेशकर हॉस्पिटल में मौत हो गई। 1.8 किलो का ये बच्ची रेयर बॉर्न डिसीज 'हार्लेक्विन एचथियोसिस' से जूझ रहा थी जिसे की तमाम कोशिशों के बाद बचाया नहीं जा सका।
बीमारी को हर्लेक़ुइन इच्थोय्सिस कहते हैं
हमारे देश में पहली बार ऐसा हुआ कि पैदा होने वाले बच्चे के शरीर पर खाल यानि की स्किन ही नहीं थी। स्किन की जगह पर है एक मोटी सफ़ेद परत थी जिसपर गहरी लाल दरारें पड़ी थीं। इस बीमारी को हर्लेक़ुइन इच्थोय्सिस कहते हैं। इसमें शरीर के अंग विकसित नहीं हो पाते हैं, आँखे नाक कान और अन्य अंगों जैसे गुप्तांगों की जगह केवल लाल चक्कत्ते हो जाते हैं।
भारत में पहला केस
भारत में यह पहली बार हुआ है की ऐसी बीमारी के साथ किसी बच्चे का जन्म हुआ था, यह एक रेयर स्किन प्रॉब्लम है जिसका कोई इलाज नहीं है। बस डॉक्टर इसी कोशिश में हैं की वह जितने समय तक हो सके बच्चे को जिन्दा रख सके।
स्किन प्रोब्लम है हर्लेक़ुइन इच्थोय्सिस
हर्लेक़ुइन इच्थ्योसिस नामक बीमारी में शरीर पर हीरे के समान शल्क पड़ जाते हैं जैसे की मछली की खाल पर होते हैं। इस बीमारी का पता माँ के गर्भ में पल रहे भ्रूण की त्वचा बाइयोप्सी से चल सकता है। आजकल प्रचलित 3d अल्ट्रासाउंड और सोनोग्राफी टेस्ट से इस बीमारी का पता पहले ही चल जाता है। अल्ट्रासाउंड में आँख कान नाक की ख़राब बनावट ; भिंची हुई मुट्ठियाँ या चेहरे की बिगड़ी हुई आकृति सभी कुछ मालूम हो जाता है ।प्रोटीन abca12 में जीन परिवर्तन के कारण होता है।
तीन लाख में एक बच्चा होता है प्रभावित
1750 से इस बीमारी के बारे में जानकारी मिली। आमतौर पर 300000 में एक बच्चे में यह बीमारी पाई जाती है। त्वचा को नियमित रूप से मोश्चुरयिज़ करने की ज़रूरत होती है क्यूंकि त्वचा पर से पपड़ी निकल कर गिरती रहती है जिससे खाल के भीतरी हिस्से सामने आ जाते हैं जो हानिकारक है।